from tale of a moment

वो जंगल (that forest)


यूँ तो वो एक घनघोर जंगल था,
पर शहर की हवा से महफूज़ था।

घने पेड़ो से घिरा हुआ, बहती नदी को समाता हुआ,
रंगबिरंगे फूलो से महकता हुआ, विभिन्न रसों के फलो से लदा हुआ,
वो एक हराभरा जंगल था।

हर प्रकार के जीवो को आसरा देता हुआ,
ऊंच-नीच के भेद को छेदता हुआ,
वो एक घनघोर पर सहिष्णु जंगल था।

अगर शेरो का गट था तो चूहों का भी झुंड था,
गेंडे से लेकर गिलहरी तक; गीदड़ से लेके पतंगे तक,
शाकाहारी से लेकर मांसभक्षी; जलचर से लेकर भूचर,
अनगिनत प्राणियो का वो घर था।

शिकारी शेर तभी शिकार करता था जब वो भूखा होता था;
चीता भी कल का सोच शिकार नहीं करता था,
खरगोश घास को भूख से ज्यादा काट कर नहीं रखता था,
हर कोई आज में जिया करता था,
भविष्य शब्द के मायने से वो जंगल अनजान था।

न भगवे गेंदे का फूल कोई मूर्ति पे चढ़ते देखा था,
न गुलाब को कभी मज़ार की चद्दर में बुनते देखा था।
रंगो का बटवारा अभी तक नहीं हुआ था,
दंगा फसाद का एक वाकया भी नहीं हुआ था।
शायद इसलिए कि वो जंगल धर्म से अनजान था,
शायद इसलिए भी कि महंत, मुल्ला और पादरी से अनजान था।


न कोई नौकरी थी न कोई धंधा था,
फिर भी न जाने क्यों व्यवहार कैसे चलता था!
शायद इसलिए कि वो पैसो के अविष्कार से सदियो दूर था।

वहाँ हर कोई अपना काम खुद करता था,
न कोई काम में भेद करता था,
न कोई मिले काम को लेकर शोर करता था,
दूसरों से काम करवाने का सबक सीखना बाकी था।

कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं थी,
फिर भी कोई अराजक अवस्था नहीं थी।
शादी का रिवाज नहीं था, फिर भी व्यभिचार नहीं था।
दहेज़ की आग में किसी हिरनी का जलना नहीं हुआ था,
या नदी में कूद किसी हथिनी का मरना नहीं हुआ था।


एक बंदरिया थी; बड़ी सुन्दर थी,
हर बंदर को लुभाती थी,
जब वो एक डाल से दूसरे डाल गोते लगाती थी।
पर ये सच था की पकड़ दोनों हाथ और पैर बंदरिया के,
मिलके बंदरो ने उस पर कहर कभी नहीं गुज़ारा था।
बंदर ही क्यों, हर प्राणी को ऐसी हरकतों से ऐतराज़ था,
शायद उन्हें आदमी की फितरत को सीखने से ऐतराज़ था।

नंगे घूमते थे सब के सब, पर बेशरम कोई नहीं था,
बेटी के जन्म पर फेक दे उसे, ऐसा बेरहम कोई नहीं था,
शायद इसीलिए वहा कोई अनाथाश्रम नहीं था।

नारी सम्मान की भावना जैसा कोई तर्क नहीं था,
क्योकि नर और मादा में कोई फर्क नहीं था,
इसीलिए शायद वहा जिस्मों का बाज़ार नहीं था।

न किताबे थी न शब्दों का आविष्कार,
न बोलियाँ थी न भाषा का प्रकार,
पर न जाने कैसे एक की बात दूसरे के ज़हन में होती थी,
बिना बोले ही सारी बाते होती थी।
शायद वो जंगल संकेतो को समझता था,
शब्दो से होने वाले संकटो को समझता था।




वो जंगल अब नहीं रहा...


वो जंगल अब नहीं रहा,

ओर उसमे रहने वाला भी कही का नहीं रहा।

सुनहरे हिरन की खाल को अमन की खाला ने पहन लिया है,
हाथी के दन्तो का कंगन किसी यौवना ने हाथो मे सजा लिया है,
खरगोश का गोश्त पहलवानो ने अपने आहार में समा लिया है,
शेर का चमडा किसी उमराव ने पैरो को साफ़ करने लिया है,
गेंडे का गुर्दा किसी हाकिम की दवा में मिला लिया हैं।
कई जानवरो को आदमी ने गुलाम बना लिया हैं,
जो नहीं बना गुलाम उसे मार काबू कर लिया है।

वो जंगल को तबाह कर उसने एक और जंगल बना लिया हैं,
जिसमे उसने जंगल के हर कायदे को भुला दिया हैं।

निकला था जंगल से, इन्सान बनने आदमी,
पर बन के रह गया खुद जंगली आदमी।

जिस जंगल से सीख थी जो कभी पाई,
वही आज उसने तबाही पूरी मचाई,

काट रहा वही डोर,
जिस पर टीकी उसके जीवन की डोर।

मिटाके जंगल वो क्या पायेगा,
खुद भी तो कैसे सांस ले पायेगा,

अभी भी वक्त है जो समझ पायेगा,
एक पौधे से भी काम चल जायेगा,
बोयेगा पौधा*, तभी वो खुद भी ज़िंदा रह पायेगा

ओर पीछे अपने अपनों के लिए,
एक अच्छा कल भी छोड़ जायेगा।

penned by Dinesh Gajjar
taken from my another blog: tale of a moment

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